रशीद किदवई, कृष्णकांत शर्मा
देश की आजादी का जब भी जिक्र होगा, सुभाष चंद्र बोस का नाम हम सबकी जुबां पर जरूर होगा. लेकिन उनके बारे में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो हम नहीं जानते. स्वतंत्रता दिवस पर एक विशेष इंटरव्यू में उनकी बेटी अनिता बी. फाफ ने अपने पिता और उनके इर्द-गिर्द रहस्यों के बारे में विस्तार से बात की है.
जब आप बड़े हो रहे थे, तो आपने अपनी मां से अपने पिता, सुभाष चंद्र बोस के बारे में विस्तार से चर्चा की होगी. उनके बारे में उनकी क्या यादें हैं?
मुझे सभी घटनाएं और बातें तो याद नहीं. लेकिन मुझे याद है कि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, सभी लोगों के लिए बहुत कठिन और कष्टदायक समय था क्योंकि उन्हें खाने-पीने की व्यवस्था करनी थी और अपने परिवारों की देखभाल करनी थी. मेरे पिता की यादें मेरी मां के लिए बहुत दर्दनाक थीं, उन्होंने मुझसे इसके बारे में बात की, लेकिन उस तरह से नहीं जैसे आम लोग बात करते हैं. लेकिन बाद में, बहुत सारी कहानियां मैंने अपने रिश्तेदारों से सुनीं, जो हमसे मिलने आए और मेरे पिता के बारे में बताया.
आपके पिता के बारे में आपकी सबसे पुरानी यादें क्या हैं?
मेरी सबसे पहली याद 1947 की है. तब मेरे एक चचेरे भाई मिलने आए थे, मेरी मां ने तब पिताजी की तस्वीरें मुझे दिखाईं. मुझे अपने पिता के बारे में कोई याद नहीं है, क्योंकि उन्होंने मुझे तब देखा था जब मैं सिर्फ 4 हफ्ते की थी, और जाहिर है, मुझे उस मुलाकात की कोई याद नहीं है.
आपकी मां आपका नाम ‘अमिता ब्रिगिट’ रखना चाहती थीं, लेकिन आखिरकार उन्होंने आपका नाम ‘अनीता ब्रिगिट’ रख दिया (ब्रिगिट का जर्मन में संक्षिप्त रूप गीता है). उन्हें ऐसा करने के लिए कहां से प्रेरणा मिली?
मेरा जन्म वियना (तब जर्मनी का हिस्सा) में नाजी शासन के दौरान हुआ था, जो विदेशियों के बहुत खिलाफ था. अपने बच्चे का विदेशी नाम रखना मना था. इसलिए, अमिता अधिकारियों को पसंद नहीं आता. मेरा नाम ‘अनीता’ रखा गया, जो एक विदेशी नाम था, एक इतालवी नाम. उस समय इटली जर्मनी के सहयोगियों में से एक था. इसलिए मुझे यह नाम दिया गया था. ब्रिगिट को मध्य नाम के रूप में चुना गया क्योंकि इसका संक्षिप्त रूप गीता था. मुझे अभी भी अनीता कहा जाता है, लेकिन अगर अनीता को स्वीकार नहीं किया जाता तो ब्रिगिट मेरा आधिकारिक पहला नाम हो सकता था.
जब आपने अपनी मां और पिता के लिखे गए खतों और दोनों के बीच रिश्ते के बारे में पढ़ा तो आपको कैसा लगा?
यह बंधन उन दोनों के लिए आश्चर्यजनक था, और यह एक गहरा बंधन था. दोनों में से किसी ने भी यह मानकर संबंध शुरू नहीं किया था कि यह इतना गहरा हो जाएगा. यह विशुद्ध रूप से प्रोफेशनल रिलेशन के रूप में शुरू हुआ. मेरे पिता ने मन बना लिया था कि वे अपना जीवन स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित करेंगे और किसी भी निजी संबंध का उनके जीवन में कोई स्थान नहीं था. कई लोगों ने उन्हें दामाद बनाने की कोशिश की थी, लेकिन वे उन प्रयासों से बचते रहे.
नेताजी बोस के लापता होने और उनके आखिरी वक्त के बारे में बहुत बहस और विवाद हुआ है. इसे लेकर और ‘गुमनामी बाबा’ के बारे में आप क्या सोचती हैं?
यह तो तय है कि मेरे पिता की मौत 18 अगस्त, 1945 को ताइपे में एक विमान दुर्घटना के बाद हुई थी. उस समय कोई निर्णायक सबूत उपलब्ध नहीं था. उदाहरण के लिए, मेरी मां को कुछ दिनों बाद रेडियो पर समाचार मिला था. मेरे पिता के बारे में अंग्रेजों को बहुत रुचि थी. तब उन्होंने अमेरिकियों से मेरे पिता की मौत की जांच करने के लिए कहा. बहुत दिनों बाद जारी किए गए दस्तावेजों से ये साबित होता है. उनसे पता चला कि मेरे पिता की मौत विमान हादसे में हुई थी. इसके अलावा, जापानी और भारतीय सरकारों ने विमान दुर्घटना की जांच की. बीते वर्षों में 11 जांच हुईं, जिनमें से तीन भारत सरकार ने की. जस्टिस मुखर्जी आयोग को छोड़कर, सभी ने निष्कर्ष निकाला कि 18 अगस्त, 1945 को विमान हादसे में ही उनकी मौत हो गई. मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट नतीजे पर नहीं पहुंच सकी. हमारे एक रिश्तेदार ने मौजूद सभी दस्तावेजों की जांच की और उनमें कई गलतियां पाईं. उदाहरण के लिए, जापानी में लिखा गया एक पत्र था. इसका अनुवाद वाला हिस्सा छोड़ दिया गया था. इसके अलावा, रिपोर्ट में दावा किया गया कि हबीबुर रहमान ने कहा था कि विमान 12,000-14,000 फीट की ऊंचाई पर उड़ रहा था. अगर विमान इतनी ऊंचाई से गिरता है, तो जाहिर है, कोई भी नहीं बचेगा. लेकिन रहमान ने कहा था, जैसा कि दस्तावेज से पता चलता है कि ताइपे के रास्ते में विमान उस ऊंचाई पर उड़ रहा था. विमान वास्तव में 20-30 मीटर की ऊंचाई से गिरा क्योंकि उसका इंजन खराब हो गया था.
मेरी एक भतीजी और भतीजे ने जस्टिस मुखर्जी से बात की और बताया कि उनकी रिपोर्ट में कई गलतियां थीं. उनका जवाब था: “हाँ, मुझे पता है, और मैं इसके बारे में बात नहीं करना चाहता.” मुझे नहीं पता कि उन्होंने जानबूझकर गलत तथ्य बताए या उन्होंने सबूतों की ठीक से जांच नहीं की. लेकिन मुझे आश्चर्य है कि उनके कद का व्यक्ति जानबूझकर या रिपोर्ट लिखने में लापरवाही के कारण ऐसी गलतियां कर सकता है.
‘गुमनामी बाबा’ थ्योरी के बारे में मेरा मानना है कि यह नेताजी का बहुत बड़ा अपमान है. क्या उनके जैसा ईमानदार व्यक्ति भारत आकर अपने परिवार से संपर्क नहीं करेगा और बस पर्दे के पीछे बैठा रहेगा? यह समझ में नहीं आता कि उनके जैसा व्यक्ति इस तरह का व्यवहार करेगा.
क्या आपको कभी हबीब-उर रहमान या विमान दुर्घटना में जीवित बचे किसी अन्य व्यक्ति से बातचीत करने का अवसर मिला?
हबीबुर रहमान और दो जापानी अधिकारियों सहित विमान दुर्घटना में कई लोग जीवित बचे थे. मैंने उनमें से एक से जापान में बातचीत की, लेकिन मुझे हबीब-उर रहमान से व्यक्तिगत रूप से मिलने का अवसर कभी नहीं मिला क्योंकि वह पाकिस्तान गए थे और मुझे वहां उनसे मिलने का अवसर कभी नहीं मिला. विमान दुर्घटना के समय वह मेरे पिता के साथ जाने वाले एकमात्र भारतीय थे. बाद में, जब मेरे पिता के अवशेषों को टोक्यो के रेंकोजी मंदिर ले जाया गया, तो वहां और भी भारतीय मौजूद थे.
शाह नवाज समिति और जस्टिस मुखर्जी आयोग के अनुसार आपके पिता को लेकर मतभेद के बारे में आपके क्या विचार हैं और शाह नवाज समिति में सुरेश चंद्र बोस द्वारा लिए गए रुख को आप कैसे देखती हैं?
मेरे पिता के बारे में 10 जांच एक ही निष्कर्ष पर पहुंचीं. मेरे चाचा सुरेश चंद्र बोस, शाह नवाज समिति का हिस्सा थे और उन्होंने मूल रूप से ड्रॉफ्ट रिपोर्ट बनाई थी, लेकिन बाद में उन्होंने अपना विचार बदल लिया और अलग रिपोर्ट दी. मुझे कभी समझ नहीं आया कि उन्होंने अपना विचार क्यों बदला.
टोक्यो के रेंकोजी मंदिर में रखी गई राख के बारे में आपके क्या विचार हैं, जो कथित तौर पर आपके पिता के अवशेष हैं? आप उन्हें अंततः कैसे और कहां रखना चाहेंगी?
मैं चाहती हूं कि अवशेष भारत वापस आएं क्योंकि भारत की स्वतंत्रता उनके लिए बहुत मायने रखती थी. मुझे नहीं पता कि यह कैसे किया जा सकता है. मैं इसे निजी तौर पर कर सकती हूं. अवशेषों को लाकर बाद में दूसरों को इसके बारे में बता सकती हूं, लेकिन यह जापानी सरकार या रेंकोजी मंदिर के पुजारियों को शायद पसंद न आए. वे इसे अपमान मानेंगे. उन्होंने बहुत प्रयास किए हैं . बहुत जोखिम उठाए हैं और वर्षों तक उस राख को बचाकर रखा है. पहले मुख्य पुजारी अक्सर सोते समय भी राख को अपने पास रखते थे. जापान में कई लोग, यहां तक कि पूर्व जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे भी मेरे पिता के बहुत बड़े प्रशंसक थे. इसलिए नेताजी के अवशेषों को भारत लाने का कोई गुप्त प्रयास उचित नहीं होगा. एकमात्र सम्मानजनक तरीका आधिकारिक तौर पर ट्रांसफर है. भारत सरकार को अस्थियों को वापस लाने में अग्रणी भूमिका निभानी होगी. इसे लेकर बहुत अग्रेशन हो सकता है. और हो सकता है कि कुछ लोग इसके लिए मुझे जान से मार डालना चाहें, लेकिन एक व्यक्ति जिसने अपने देश की आजादी के लिए इतना बलिदान दिया है, वह निश्चित रूप से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपने देश लौटने का हकदार है.
पिछले साल, रेंकोजी मंदिर के मुख्य पुजारी, क्योजेन मोचिज़ुकी, जिनका परिवार दशकों से अस्थियों की सुरक्षा कर रहा है, ने कहा कि वह चाहते हैं कि अस्थियां भारत वापस आएं. अगर आपको इस मामले में भारत सरकार को कोई संदेश भेजना हो, तो आप क्या कहेंगी?
न केवल वर्तमान मुख्य पुजारी, बल्कि उनके ससुर जो पिछले मुख्य पुजारी थे और उनके पिता, जो पहले मुख्य पुजारी थे, सबने नेताजी के अवशेषों की देखभाल की और उन्हें सम्मान से रखा. वे सभी चाहते थे कि अवशेष भारत ले जाए जाएं. जब मैं 1990 के दशक में भारत आई, तो जापानी दूतावास के लोग और जापान के कुछ अन्य लोग चाहते थे कि अवशेष वापस लाए जाएं. प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और उनके विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी की सरकार भी चाहती थी कि अवशेष वापस लाए जाएं, लेकिन जब वह सरकार गिर गई तो चीजें बदल गईं. फॉरवर्ड ब्लॉक के कुछ सदस्यों और मेरे परिवार के कुछ सदस्यों ने नई सरकार से एक और जांच आयोग नियुक्त करने के लिए संपर्क किया. तब जस्टिस मुखर्जी जांच आयोग का गठन किया गया. जब तक वह आयोग काम कर रहा था, तब तक अवशेषों को भारत वापस लाने का सवाल ही नहीं उठता था.
मेरे पिता के परिवार में ऐसे लोग भी थे जो यह नहीं मानते थे कि रेंकोजी मंदिर में रखे अवशेष उनके हैं और इस पर काफी विवाद होता. मेरे एक रिश्तेदार ने जस्टिस मुखर्जी रिपोर्ट की सत्यता और गुणवत्ता की जांच की और आखिरकार हमारे परिवार के ज़्यादातर लोगों को यह समझाने में सफल रहे कि वे अवशेष वास्तव में नेताजी के ही थे. हमें यह पसंद न आए, लेकिन मेरे पिता की मृत्यु 18 अगस्त, 1945 को हुई थी. मेरे सिर्फ़ एक चचेरे भाई को विश्वास था कि मेरे पिता सोवियत संघ भाग गए थे. जबकि हम मानते हैं कि ऐसा नहीं था. यह निश्चित रूप से गुमनामी बाबा की कहानी से अधिक समझ में आता है क्योंकि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह वापस नहीं आ पाए थे. लेकिन सोवियत संघ ने हमेशा इस दावे का खंडन किया है. यहां तक जब भारत सरकार ने 1990 के दशक की शुरुआत में उनसे पूछताछ की थी, तब भी उन्होंने नकारा.
आप पहली बार भारत कब आई थीं और भारत में अपने पिता के परिवार से मिलने का आपका अनुभव कैसा रहा?
कुछ अपवादों को छोड़कर मेरे सभी रिश्तेदारों ने मेरा बहुत गर्मजोशी से स्वागत कियाः जब वे ऑस्ट्रिया में मेरी मां और मुझसे मिलने आए थे, तो मैंने उनमें से कई से मुलाकात की थी. मेरी मां उनमें से कई के साथ नियमित रूप से खतों के जरिए संपर्क में रहती थीं.
क्या आपके बच्चे और पोते आपके पिता और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी विरासत के बारे में जानते हैं?
मेरे बच्चे, मेरे पोते-पोतियों से ज़्यादा, अपने दादा की विरासत के बारे में जानते हैं. मेरे बड़े बेटे ने इतिहास की पढ़ाई की है. वह एक जर्नलिस्ट है, इसलिए उसकी इसमें प्रोफेशनल और निजी दोनों तरह की रुचि है.
सुभाष चंद्र बोस ने एक्सिस पॉवर्स और स्टालिनवादी सोवियत संघ से भी समर्थन लिया, जो मित्र समूह का हिस्सा था. यह कैसे संभव हुआ?
1941 में वे भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सोवियत संघ की सहायता लेना पसंद करते, लेकिन सोवियत संघ भारत के प्रयासों का समर्थन करने के लिए तैयार नहीं था. पीछे मुड़कर देखने पर हम जानते हैं कि हिटलर और स्टालिन दोनों ही अलग तरह के व्यक्ति थे. वे वॉर क्रिमिनल थे, जिन्होंने कई जघन्य अपराध किए थे. केवल ब्रिटेन के दुश्मन ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समर्थक थे. जब जर्मनी ने जून 1941 में सोवियत संघ पर हमला किया, तो सोवियत संघ ब्रिटेन का सहयोगी बन गया. विदेश में समर्थन की तलाश में मेरे पिता के पास ब्रिटेन के दुश्मनों के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था, भले ही उन्हें पता था कि वे कोई महत्वपूर्ण सहयोगी नहीं थे.
19 अक्टूबर, 1938 को आपके पिता ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर उनसे कांग्रेस योजना समिति का अध्यक्ष बनने का अनुरोध किया. उन दोनों के बीच कैसे संबंध थे?
मेरे पिता मूल रूप से नेहरू को एक बड़े भाई और वामपंथी होने के नाते आत्मीय आत्मा मानते थे. वे इस बात से निराश थे कि जब गांधीजी 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनके पुनः चुनाव को रोकना चाहते थे, तब नेहरू ने उनका समर्थन नहीं किया. मेरे पिता हमेशा गांधीजी के बहुत बड़े प्रशंसक थे, भले ही गांधीजी ने 1939 में कई कारणों से उनका विरोध किया था. अपने अंतिम दिनों में गांधीजी भी मेरे पिता की स्थिति को बेहतर ढंग से समझने लगे थे. भारतीय सेना में एक ब्रिगेड का नाम गांधी ब्रिगेड था और दूसरी ब्रिगेड का नाम नेहरू ब्रिगेड था. सामान्य तौर पर, हमें यह समझना होगा कि भले ही स्वतंत्रता सेनानियों में ब्रिटेन के विरोध को लेकर कुछ पहलुओं पर मतभेद रहा हो, लेकिन वे सभी एक कॉमन लक्ष्य के लिए काम करते थे. उनके बीच कोई भी मतभेद व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी.
मेरे पिता और गांधीजी अहिंसा के बारे में अलग-अलग थे. मेरे पिता का मानना था कि अहिंसा महत्वपूर्ण है, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन को केवल इसी तक सीमित नहीं रखना चाहिए. नेहरू एक कट्टर फासीवादी विरोधी थे और उनका मानना था कि भारत को जर्मनी, इटली और जापान के खिलाफ ब्रिटेन का समर्थन करना चाहिए, बशर्ते ब्रिटेन युद्ध जीतने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने का वादा करे. मेरे पिता ब्रिटेन के साथ सहयोग के बारे में कभी नहीं सोचते. हालांकि वे स्वयं फासीवादी नहीं थे, लेकिन उनका मानना था कि ये देश, जो उस युद्ध के दौरान ब्रिटेन के दुश्मन थे, ब्रिटेन के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में भारत का साथ देंगे.
भारत ने आपके पिता पर एक सिक्का और कई डाक टिकट जारी किए हैं और भारत की आजादी के 75वें साल पर इंडिया गेट के पास नेताजी सुभाष चंद्र बोस की एक भव्य प्रतिमा का उद्घाटन किया गया. उसके बारे में आपका क्या कहना है?
ऐतिहासिक रूप से उनकी प्रतिमा का स्थान बहुत प्रतिष्ठित है और प्रतीकात्मक भी है. कुछ देरी से ही सही, आखिरकार उनकी प्रतिमा ने भारत के पूर्व औपनिवेशिक शासक किंग जॉर्ज पंचम की प्रतिमा की जगह ले ली. वर्तमान सरकार ने मेरे पिता को कई तरीकों से सम्मानित किया है. उदाहरण के लिए, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का नाम बदलकर स्वराज और शहीद द्वीप कर दिया. हालांकि, मेरे पिता को हिंदू राष्ट्रवादी के रूप में चित्रित करना इतिहास को विकृत करना है. उनका मानना था कि सरकार और राजनीति धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिए. लेकिन एक कट्टर हिंदू के रूप में भी उन्होंने सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान किया. उन्होंने इस सिद्धांत का केवल दिखावा नहीं किया. इस सिद्धांत का पालन आईएनए में भी किया गया था. मेरे पिता के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण था कि जाति या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न हो. मुझे बहुत खुशी है कि मेरे पिता के देश और उसकी स्वतंत्रता में योगदान को महत्वपूर्ण माना जाता है और वर्तमान सरकार उसे मान्यता देती है, शायद पिछली सरकारों की तुलना में कुछ अधिक.
आपके अनुसार, आज के भारत में आपके पिता की विरासत का क्या महत्व है और आप उन्हें कैसे याद रखना चाहेंगे?
जहां तक राजनीतिक पहलू का सवाल है, मेरे पिता एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए खड़े थे. मैं चाहती हूं कि उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाए जो एक समर्पित आदर्शवादी थे. उनके लिए, उनके देश की स्वतंत्रता और उनके देशवासियों और देशवासियों की भलाई सर्वोपरि थी, जिसके लिए वे अपना सब कुछ बलिदान करने के लिए तैयार थे, जिसमें उनका जीवन भी शामिल था. मैं यह भी चाहती हूं कि उन्हें धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टि से एक सहिष्णु व्यक्ति के रूप में याद किया जाए. उनके लिए, राजनीतिक विरोधी दुश्मन नहीं थे, बल्कि उसी आदर्श के लिए प्रतिस्पर्धी थे.
Tags: Subhas chandra bose
FIRST PUBLISHED : August 15, 2024, 19:26 IST